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बलि या कुर्बानी एक्को ही बात है बकरे के लिए
हिन्दू धर्म में बलि की प्रथा हो या मुस्लिमो में कुर्बानी काटना तो आखिर बकरे को ही है आखिर ये धर्म के साथ हिंसा को जोड़ने का क्या औचित्य है कहते हैं इब्राहीम ने अपने सबसे प्रिय पुत्र की कुर्बानी दे दी थी अल्लाह के नाम पर कुर्बानी तो अपनी सबसे प्रिय वास्तु की दी जाती है वह बाजार से ख़रीदा गया पशु तो हो नहीं सकता या फिर वह बेजुबान जानवर तो नहीं हो सकता जिसे पला ही मारने के लिए जा रहा हो
हिन्दू धर्म में भी मान्यता है की किसी कार्य के पूर्ण होने पर देवी के समक्ष बलि दी जाती है परन्तु इश्वर को खुश करने के लिए पशु पर ये अत्याचार और हिंसा क्यूँ इस बलि को सांकेतिक भी किया जा सकता है जैसे की बलि में बकरे के स्थान पर नारियल को फोड़ कर देवी को समर्पित किया जाय
जैसे की जब इब्राहीम ने अपने पुत्र को अल्लाह को समर्पित किया तो उन्होंने अपने आँखों में पट्टी बांध ली थी पट्टी हटाने पर उन्होंने देखा की पुत्र जिन्दा है तथा उसके स्थान पर एक मेमना कटा है यानि अल्लाह ने सांकेतिक रूप में बलि के कुर्बानी के नाम पर मेमने को मन इसी प्रकार मेमने की कुर्बानी भी सांकेतिक हो सकती है जैसे की राज्य सभा की उपसभापति आदरणीय नजमा हेपतुल्लाह के अनुसार वो जितने पैसों का बकरा कुर्बान करना चाहती हैं उतने धन का गरीबों में दान कर देती हैं कुर्बानी भी हो जाती है हिंसा भी नहीं होती तथा गरीबों का भी भला हो जाता है
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