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बाबुल तेरे आंगन की
शीत की ,सावन की
कोमल एक कली थी मैं
नाज़ों से पली थी मैं
विकास की इस होड़ में
प्रतियोगिता की दौड़ में
संयुक्त परिवार टूट गए
संस्कार पीछे छूट गए
मेरा अपना हर कोई
मुझसे दूर है
बाबुल ये बता मेरा
क्या कसूर है
उम्र के उद्वेग में
यौवन के संवेग में
उत्सुकता की नाव में
जीवन के इस पड़ाव में
इंटरनेट ही मेरा प्यार था
जिसमे अश्लीलता का संसार था
सही गलत से न नाता था
कल्पनाओं का ज्वर भाटा था
जो देखा वही अपनाने का
मुझको सुरूर है
बाबुल ये बता मेरा क्या कसूर है
आज हर कली डरी हुई
संवेदनाओं से भरी हुई
भावनाओं का बबाल है
समाज से सवाल है
पश्चिमी सभ्यता की
पशोपेश में
आधुनिकता के वेश में
मन को यूं मसोस रहे
नयी पीढ़ी को क्या परोस रहे
नयी फसल इसमें क्या पायेगी
जो भी देखेगी महज़
वही अपनाएगी
संक्रमण काल में फंसा ये आज
समाज जरूर है
बाबुल ये बता मेरा क्या कसूर है
इस नयी युवा पीढ़ी को
सफलता की सीढ़ी को
न कोई धन दौलत का
अम्बार चाहिए
माँ बाप के साथ बिताने को
समय और प्यार चाहिए
न कोई कली जाए मसल
संस्कारों में न हो दखल
क़त्ल करने को अब न कोई
माँ बाप मजबूर हो
अब न किसी बेटी का
कोई कसूर हो
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