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समाज में बढ़ती इस वहशियत का दोषी आखिर कौन है भ्रष्ट शाशन व्यवस्था ,लाचार कानून या स्वयं संवेदनहीन होता ये समाज क्या यह बुराई समाज में पहले नहीं थी आज अतीत और आज के समाज में तुलनात्मक अध्ययन करने की आवश्यकता है
मुझे याद है अपने बचपन की तब समाज और परिवार में कुछ नियम हुआ करते थे लड़की और लड़कों दोनों को ही सूरज ढलने के बाद घर से बहार जाने की मनाही थी कोई लड़की अकेले बहार नहीं जाती थी दिन में भी एक छोटा लड़का ही सही उसके साथ कोई न कोई होता था मोहल्ला परिवार की तरह होता था पड़ोस के बड़ों को अंकल या औनती न कहकर ताऊ तै ,या चाची चाचा कहा जाता था बड़ी लड़कियों को दीदी तथा छोटी को बहिन ही माना जाता था कम से कम ये पुकारने से मन मन में कोई बुरे विचार नहीं आते थे रात में किसी लड़की को बहार आवश्यक काम से भी जाना हो तो उसे गंतव्य तक पहुँचाने और लाने की जिम्मेवारी बड़ो की होती थी
आज का समाज इन विचारों को दकियानूसी बताता है आज लड़कियों को अकेले उनके मित्रों के साथ पार्टी और यहां तक की क्लबों में जाना विकास और आधुनिकता का प्रतीक माना जाता है यह समाज क्यों नहीं समझता की विकास शिक्षा से होता है न की इन वाहियात आज़ादी और कपड़ों से एक ज़माना था जब वस्त्र शरीर ढकने के लिए प्रयोग में लाये जाते थे आज वस्त्र जिस्म दिखाने के लिए प्रयोग होते हैं आज का फैशन ऐसा है की अंतर्वस्त्र भी बहार नजर आने लगे हैं मैं ये नहीं कहता की ये हमारी नजर का दोष है परन्तु सही पोशाक वही है जिसमे हमें अपनी ही बेटियों के साथ बैठने में असहज न महसूस हो
नारी को इज्जत देने की शुरुआत सर्वप्रथम घर से ही होती है कम से कम घर में एक शौचालय बनाकर अपनी बहु बेटियों को इज्जत प्रदान करें सब कुछ सरकार नहीं करेगी आज सुदूर गाँव में भी सबके पास मोबाइल डिश तथा टी वी है परन्तु शौचालय नहीं विकास और आधुनिकता का प्रतीक ये इलेक्ट्रॉनिक चीजें नहीं वरन मूलभूत सुविधा युक्त शौचालय वाला घर है
हमारे जमाने में कुछ गाली और अश्लील भाषा पाठशाला तो क्या बाहर भी प्रयोग नहीं कर सकते थे घर और पाठशाला में दंड का प्रावधान हुआ करता था परन्तु आज वही भाषा खुले आम टी वी में और चलचित्र में प्रयोग की जा रही है वो अश्लील शब्द धड़ल्ले से गानो में सुने जा सकते हैं और बच्चों को टोकने या दंड देने का तो प्रावधान नहीं है परन्तु बच्चों को टोकने पर शिक्षक को दंड देने का प्रावधान नै शिक्षा नीति में जरूर है
अब मई जिक्र करना चाहूँगा उन अश्लील किताबों का जो कभी रेलवे स्टेशन तथा बस स्टैंड तक सीमित थी घर में उनका पाया जाना लगभग असंभव था आज वही अश्लीलता एक छोटे से इंटरनेट युक्त खिलोने में चलचित्र के रूप में उपस्थित है जिसे हम मोबाइल कहते है या computer जिसे स्वयं माता पिता अपने बच्चों को परोस रहे हैं और यह भी नहीं देखते कि वो मासूम उसमे क्या देख रहा है और हम स्वयं जो अश्लीलता इन माध्यमों से उन्हें परोस रहे हैं और या मासूम पीड़ी उसे अपनाने में तुली है अनजाने में प्रयोग कर रही है जिसका परिणाम बलात्कार के रूप में हमें दिखाई दे रहा है
आज शिक्षा के नाम पर माता पिता और सरकार छोटे बच्चों को भी यह सब प्रदान करने में आधुनिक होने का गर्व महसूस कर रहे हैं इनमे से कितने माता पिता ने अपने बच्चों को टी वी में अन्य कार्यक्रम के बजाय शैक्षिक कार्यक्रम देखने को प्रोत्साहित किया होगा
अब मैं ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा कानून की लाचारी का प्रसिद्द दामिनी कांड को दो साल होने जा रहे हैं फांसी की सजा मिलने के बाद भी मामला कानून की लालफीताशाही में अटका पड़ा है जिस देश में राजीव गांधी के हत्यारों को अब तक सजा नहीं मिल पाई अब उन्हें कानूनी दांव पेंच द्वारा छुड़ाए जाने की कोशिशें जारी हैं वहाँ आम आदमी न्याय की आशा कैसे कर सकता है यह सब केस अपराधियों के लिए उत्प्रेरक का कार्य करते हैं इतिहास गवाह है दामिनी केस के बाद ये बलात्कार घटने के बजाय बड़े ही हैं
आज समाज को स्वयं भी जागना होगा आधुनिकता और विकास के नाम पर फैलने वाली अश्लीलता को नकारना होगा तथा केवल कानून के भरोसे न रहकर खुद को भी इस विषय पर चिंतन करके अपने आप को सुरक्षित रखना होगा
मैं देखता हूँ इस समाज में माँ का बड़ा सम्मान है हर एक कवि ने भी माँ की महिमा का बड़ा वर्णन किया है तो आज समाज में उसी माँ से गुहार है की वह अपनी संतान को कम से कम ऐसे संस्कार दे की वह नारी की इज्जत करे और बेटियों को भी ऐसे जीवन मूल्य सिखाये की वह अपने व्यवहार से समाज में नारी द्वारा पाये जाने वाले सम्मान की उचित हकदार बने
आखिर में इस अनुच्छेद का अंत मैं अपनी एक कविता द्वारा करना चाहूंगा
समाज और संस्कार
समाज मेँ संस्कार के भी कुछ मायने होते हैँ
सुना था साहित्य समाज के आईने होते हैँ
आज इस आईने मेँ सब धुँधला नजर आता है
समाज एक बाजार हर एक खरीदार नजर आता है
इस अक्स मेँ अपने भी कुछ दोष रहे हैँ
नयी नस्ल को महज अश्लीलता परोस रहे हैँ
ये कच्ची उम्र की पीढी क्या जान पायेगी
जो देखेगी उसी को तो अपनायेगी
इसे देखकर वह मासूम भला क्या पायेगा
उसे तो हर माँ बहन मेँ महज जिस्म नजर आयेगा
इस तरक्की मेँ कैसे हर बालक संस्कारी होगा
इससे तो हर घर मेँ एक बलात्कारी होगा
हम सयानोँ को ही इस सोच को बदलना होगा
तरक्की महज वस्त्र त्याग नहीँ ये समझना होगा
खुद इस समाज को संस्कारोँ से सजाना होगा
अँधेरे को न कोस वरन दीप जलाना होगा
दीपक पाण्डे J N V नैनीताल
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