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पृकृति के इस कोप को क्यूँ आजमाते हो
पहाड़ों में हर बार क्यूँ जंगल जलाते हो
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छाँव में इन दरख्तों के जड़ीबूटियां पनपती हैं
डालों पे इसके घरोंदे बना चिड़ियाँ चहकती हैं
आने वाली इन नस्लों को क्यूँ धूएँ में उड़ाते हो
पहाड़ों में हर बार क्यूँ जंगल जलाते हो
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लोभ में चन्द रुपयों के करोड़ों बर्बाद कर रहे
सभी जीव जंतु इस दावानल में खाक कर रहे
इंसानियत की खातिर क्यूँ न रहम खाते हो
पहाड़ों में हर बार क्यूँ जंगल जलाते हो
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चीड़ की हस्ती ने ये मंजर बना डाला
जल स्रोत सोख धरती को बंजर बना डाला
वृक्ष देवदार और बांज क्यूँ नहीं लगाते हो
पहाड़ों में हर बार क्यूँ जंगल जलाते हो
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एक दिन ये आग तुम्हारे घर तक आएगी
तुम्हारी आने वाली नस्लों को मिटाएगी
ये सोच कर भी न तुम क्यूँ बाज़ आते हो
पहाड़ों में हर बार क्यूँ जंगल जलाते हो
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केदार में दी थी उसने ये प्रथम चेतावनी
समझे जो न फिर से तुमको देगी पटखनी
पृकृति के इस कोप को क्यूँ आजमाते हो
पहाड़ों में हर बार क्यूँ जंगल जलाते हो
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इन बेजुबां दरख्तों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है
सदियों से मानव जाति का जीवन सुधारा है
क्यूँ इन्सां पे कृतघ्नता का तमगा लगाते हो
पहाड़ों में हर बार क्यूँ जंगल जलाते हो
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ये दीन हीन जंतु फिर कहाँ को जाएंगे
जब घर ही जल गया तो शहर को आएंगे
क्यूँ इनके घर जल इन्हे बेघर बनाते हो
पहाड़ों में हर बार क्यूँ जंगल जलाते हो
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दीपक पाण्डेय
जवाहर नवोदय विद्यालय
नैनीताल
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