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सृजित हुई विष्णु के अंगुष्ठ से ब्रह्म कमंडल में विचरण हुआ
तप से भगीरथ के प्रसन्न हो मृत्युलोक में आगमन हुआ
आयी थी प्रचंड उद्वेग से तो धरती में भी कम्पन हुआ
जटा में समाई शिव के जब नीलकंठ का वंदन हुआ
लट खोली तब महेश ने धरा पर मेरा अवतरण हुआ
पावन नदी थी उस युग में इस युग में नाली हो गयी
अपने ही कपूतों के कपट से मैं गंगा काली हो गयी
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गोमुख के हिमनद से निकल स्वच्छंद मैं बढ़ती चली गयी
गुजरी मैं जिस स्थान से मानव सभ्यता बसती चली गयी
तुमने दर्जा दिया माँ का मुझे मेरा हर वक़्त नमन किया
ईश्वर की अर्चना में जल से मेरे ही तुमने आचमन किया
पानी से मेरे सींच कर अपने खेतों का सृजन वहीं किया
सभी गन्दगी और मल मूत्र का भी विसर्जन वहीं किया
आयी थी फिर मैदान में उद्योगो का हुआ फिर विस्तार
ज़हरीले रसायनों का मुझमे प्रचंड तब किया गया प्रहार
मेरी सहयोगी नदियां भी मुझसी गन्दगी से भरपूर थी
मुझमे समाने के लिए वो भी किस कदर मजबूर थी
सभी प्रदूषणों से मिल मैं विष की प्याली हो गयी
अपने ही कपूतों के कपट से मैं गंगा काली हो गयी
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आस्था के नाम पर मेरी सब आरती उतारते
फूल पत्ती,गन्दगी,पॉलिथीन सब मुझपे वारते
जो जीवित हैं वो जल से मेरे जीवन पाते हैं
जो मृत हुए जीव जंतु मुझमे ही समाते हैं
जनसँख्या थी जब कम ये सब झेलती रही
अब मेरी सहन शक्ति की भी सीमा नहीं रही
मेरे ही जल को इस तरह जो प्रदूषित करोगे
उसी जल के सेवन से अपने तन रोगों से भरोगे
सम्भलों अब खुद भी और मुझे भी सम्भालो
अब और गन्दगी को न मेरे जिस्म पे डालो
फिर न कहना क्यूँ गंगा कोप में मतवाली हो गयी
अपने ही कपूतों के कपट से मैं गंगा काली हो गयी
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सहनशक्ति का मेरे अब तुम लो न इम्तिहान
मिल बैठ कर समस्या का निकालो कुछ निदान
मल और दूषित जल के शुद्धि का चला अभियान
मेरी समस्या को सुलझा करो मेरा भी कल्याण
जब मैं ही मिट गयी तो फिर कैसे निभाओगे
आने वाली नस्लों को फिर क्या पिलाओगे
अनवरत मुझको बहने दो न उद्वेग को रोको
मुझमे ही रहने दो मुझे न मेरे संवेग को रोको
समाहित न करो कुछ मुझमे यही मेरी आरती
आज तुमसे निवेदन करती ये गंगा माँ भारती
दुनिया ये कहने लगे शुद्ध जल वाली हो गयी
सारे जहां की नदियों से निराली हो गयी
दीपक पाण्डेय
जवाहर नवोदय विद्यालय
नैनीताल
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