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दिसंबर का महीना शाम के छह बजे होंगे रामनरेश त्रिपाठी जी अपनी कुर्सी पर बैठे थे अचानक फ़ोन की घंटी घनघना उठी रामनरेश जी के फ़ोन उठाने पर एक नवयुवती की आवाज़ सुनाई दी क्या त्रिपाठी सर घर पे हैं रामनरेश जी बोले वो तो नहीं है मैं उसका पिता बोल रहा हूँ मैं अपने बेटे को आपका सन्देश दे दूंगा क्या कहना है उधर से आवाज़ आयी अंकल मैं रेनू बोल रही हूँ हमारी माँ को पापा अस्पताल ले गए थे और माँ का स्वर्गवास हो चूका है हम दो बहने घर में अकेली हैं यदि हो सके तो सर को भेज दो हमें बड़ा डर लग रहा है रामनरेश जी ने खुद को सँभालते हुए कहा बेटा तो ट्रेनिंग में दुसरे शहर गया है रेनू तुम घबराओ मत मैं खुद अपनी बहु के साथ तुम्हारे पास आ रहा हूँ
फ़ोन रखते ही रामनरेश जी ने घटना का विवरण देकर अपनी बहु से तैयार होकर चलने को कहा रस्ते भर रामनरेश जी उस दिन के बारे में सोचते रहे की जब उनके बेटे ने अच्छी नौकरियां ठुकराकर विद्यालय में अध्यापक बनने का निर्णय लिया था उनकी अपने बेटे से बहुत बहस हुई थी आखिर क्या रखा है मास्टर की नौकरी में न पैसा न शौहरत अब इज़्ज़त भी तो नहीं रही इस नौकरी में यह रेनू करीब ६ वर्ष पहले १२ कक्षा में उनके बेटे से गणित पड़ने आया करती थी तब लोग उनके घर में बेटे के अध्यापक होने पर सहानुभूति जताने आते थे वह भी अपने आप को एक शिक्षक के पिता के रूप में पहचाने जाने से कतराते थे
आज वो सोच रहे थे की क्या आज भी समाज में एक अध्यापक पर इतना विश्वास कायम है उन्हें आज अपने बेटे पर नाज़ था आज उनके बेटे ने उन्हें वो सुख दिया था जो वो बयान नहीं कर सकते थे आज वो गर्व से इस समाज को चिल्ला चिल्ला कर कहना चाहते थे की हां मैं एक शिक्षक का पिता हूँ और फख्र है मुझे एक शिक्षक का पिता होने पर जिसने आज मुझे वो सब दिया है जो शायद मेरे अन्य अमीर बेटे जिंदगी भर भी नहीं दे सकते
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