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आजकल आतंकवाद समूचे विश्व में एक विकराल समस्या का रूप ले चुका है। आतंकवाद एक ऐसा ज़हरीला वृक्ष है, जिसकी शाखाओं और फलों के रूप में एक विशेष धर्म का चेहरा नज़र आता है। परन्तु यदि ध्यान से देखा जाय तो इस वृक्ष की जड़ों के रूप में सारे पूंजीवादी विकसित देश नज़र आएंगे, जो समय-समय पर इस वृक्ष को सींचते रहते हैं। हालांकि जिन देशों द्वारा आतंकवाद रूपी यह ‘भस्मासुर’ राक्षस पैदा किया गया और पाला गया, वह अब उन्हीं पालक देशों को भी नष्ट करने पर आमादा है।
मूलतः यह आतंकवाद एक छद्म युद्ध है, जो एक देश द्वारा दूसरे देश के खिलाफ आतंकवादियों को धन एवं हथियार उपलब्ध कराकर लड़ा जाता है। जिसके लिए धन का इंतज़ाम इन पूंजीवादी देशों द्वारा उधार के रूप में किया जाता है। इन विकसित पूंजीवादी देशों की अर्थव्यस्था का मुख्य आधार वे विनाशकारी हथियार हैं, जो एक देश द्वारा दूसरे देश के खिलाफ इस आतंकवाद रूपी छद्म युद्ध में काम आते हैं। इस विनाश से निपटने के लिए दूसरे देश को भी जवाबी हथियारों की खरीद-फरोख्त करनी पड़ती है। ऐसे में इन पूंजीवादी देशों के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं।
उदाहारण के तौर पर अमेरिका ने पकिस्तान को समर्थन देकर तालिबान के निर्माण में पूरी मदद की। जब तक अमेरिका को इससे कोई खतरा नहीं था, तब तक उसने अलकायदा तथा तालिबान को आतंकी संगठन भी नहीं माना। परन्तु जब अमेरिका द्वारा समर्थित इस संगठन के ओसामा बिन लादेन ने भस्मासुर का रूप धारण कर २६/११ का आक्रमण किया, तो अमेरिका को यह आतंकवाद एक समस्या लगने लगी और उसने इस भस्मासुर का अंत भी स्वयं ही किया। सीरिया में भी तख्ता पलट के लिए इन विकसित देशों द्वारा समर्थित संगठन को हथियार और धन उपलब्ध कराए गए, परन्तु वहां सफल न होने पर इस संगठन ने अल बगदादी के नेतृत्व में आईएसआईएस बनाया। फिर इसने भी भस्मासुर का रूप धारण कर इन्हीं देशों के नागरिकों को मारना शुरू कर दिया। इसके बाद इन देशों को मिलकर इस भस्मासुर का नाश करना पड़ा।
ठन्डे दिमाग से सोचा जाय तो इन उग्रवादियों को धन उपलब्ध कराने के स्रोत खाड़ी देश भी हैं। परन्तु आज वही खाड़ी देश ही सबसे ज्यादा इन आतंकवादियों से पीड़ित भी हैं। ठीक ही कहा गया है, बोया पेड़ बबूल का आम कहां से होय। परन्तु अब समय आ गया है कि इन पूंजीवादी देशों को विनाश के यज्ञ में अपने हथियारों की बिक्री से होने वाले आर्थिक लाभ को दरकिनार कर विश्वशांति की ओर कदम बढ़ाना चाहिए। आतंकवाद को पोषित करने वाले देशों का सामूहिक विरोध करना होगा तथा मिलकर उन देशों और आतंकवादी संगठनों पर कार्रवाई करनी होगी। आतंकवाद किसी एक देश की समस्या न होकर पूरे मानव जाति की समस्या है। इसका पूरे विश्व को मिलकर निवारण करना होगा। इन पंक्तियों के साथ अंत करना चाहूंगा कि…
जो बिखेरे थे फ़िज़ाओं में चन्द नफरतों के बीज,
वो बनकर के खरपतवार मेरा संसार खा गए
सिखाया था जिन्हें मैंने ही सर काटने का हुनर
वो मेरी ही नस्ल के क़त्ल को इस बार आ गए
मेरे द्वारा ही जन्मे गए और मैंने ही हैं पाले
वो भस्मासुर आज मेरे अपने द्वार आ गए
धर्मयुद्ध के नाम जिनको थमाया था खंज़र
मेरे ही खिलाफ करने वो यलगार आ गए
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